हरिद्वार
हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा हिन्दुओं का
प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी
है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की
ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी
हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को
'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर
गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का
द्वार" होता है।पश्चात्कालीन हिंदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह
स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब गरुड़ उस
घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या
महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप
में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है।
हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है।पश्चात्कालीन हिंदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब गरुड़ उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं।एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है।हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया।आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं।
इतिहास
हरिद्वार तीर्थ के रूप में बहुत प्राचीन तीर्थ है परंतु नगर के रूप में यह बहुत प्राचीन नहीं है।हरिद्वार नाम भी उत्तर पौराणिक काल में ही प्रचलित हुआ है। महाभारत में इसे केवल 'गंगाद्वार' ही कहा गया है। पुराणों में इसे गंगाद्वार, मायाक्षेत्र, मायातीर्थ, सप्तस्रोत तथा कुब्जाम्रक के नाम से वर्णित किया गया है। प्राचीन काल में कपिलमुनि के नाम पर इसे 'कपिला' भी कहा जाता था। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ कपिल मुनि का तपोवन था।पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ ने, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया
हर की पौड़ी
'पैड़ी' का अर्थ होता है 'सीढ़ी'। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहीं तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले पहल यह कुण्ड तथा पैड़ियाँ (सीढ़ियाँ) बनवायी थीं। इनका नाम 'हरि की पैड़ी' इसी कारण पड़ गया।[14] यही 'हरि की पैड़ी' बोलचाल में 'हर की पौड़ी' हो गया है।'हर की पौड़ी' हरिद्वार का मुख्य स्थान है। मुख्यतः यहीं स्नान करने के लिए लोग आते हैं। एक अन्य प्रचलित मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि यहाँ धरती पर भगवान् विष्णु आये थे। धरती पर भगवान् विष्णु के पैर पड़ने के कारण इस स्थान को 'हरि की पैड़ी' कहा गया जो बोलचाल में 'हर की पौड़ी' बन गया है। इसे हरिद्वार का हृदय-स्थल माना जाता है।मान्यता है कि दक्ष का यज्ञ हरिद्वार के निकट ही कनखल में हुआ था।
चण्डी देवी मन्दिर
माता चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध मन्दिर गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर शिवालिक श्रेणी के 'नील पर्वत' के शिखर पर विराजमान है। यह मन्दिर कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई० में बनवाया गया था। स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ-निशुम्भ के सेनानायक चण्ड-मुण्ड को देवी चण्डी ने यहीं मारा था; जिसके बाद इस स्थान का नाम चण्डी देवी पड़ गया। मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी। मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है। मनसा देवी की तुलना में यहाँ की चढ़ाई कठिन है, किन्तु यहाँ चढ़ने-उतरने के दोनों रास्तों में अनेक प्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन हो जाते हैं। अब रोपवे ट्राॅली सुविधा आरंभ हो जाने से अधिकांश यात्री सुगमतापूर्वक उसी से यहाँ जाते हैं, लेकिन लंबी कतार का सामना करना पड़ता है।माता चण्डी देवी के भव्य मंदिर के अतिरिक्त यहाँ दूसरी ओर संतोषी माता का मंदिर भी है। साथ ही एक ओरहनुमान जी की माता अंजना देवी का मंदिर तथा हनुमान जी का मंदिर भी बना हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा दर्शनीय है। मोरों को टहलते हुए निकट से सहज रूप में देखा जा सकता है।
मनसा देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से प्रायः पश्चिम की ओर शिवालिक श्रेणी के एक पर्वत-शिखर पर मनसा देवी का मन्दिर स्थित है। मनसा देवी का शाब्दिक अर्थ है वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करती हैं। मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएँ हैं, पहली तीन मुखों व पाँच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ।मनसा देवी के मंदिर तक जाने के लिए यों तो रोपवे ट्राली की सुविधा भी आरंभ हो चुकी है और ढेर सारे यात्री उसके माध्यम से मंदिर तक की यात्रा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इस प्रणाली में लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है। इसके अतिरिक्त मनसा देवी के मंदिर तक जाने हेतु पैदल मार्ग भी बिल्कुल सुगम है। यहाँ की चढ़ाई सामान्य है। सड़क से 187 सीढ़ियों के बाद लगभग 1 किलोमीटर लंबी पक्की सड़क का निर्माण हो चुका है, जिस पर युवा लोगों के अतिरिक्त बच्चे एवं बूढ़े भी कुछ-कुछ देर रुकते हुए सुगमता पूर्वक मंदिर तक पहुंच जाते हैं। इस यात्रा का आनंद ही विशिष्ट होता है। इस मार्ग से हर की पैड़ी, वहाँ की गंगा की धारा तथा नील पर्वत के पास वाली गंगा की मुख्यधारा (नीलधारा) एवं हरिद्वार नगरी के एकत्र दर्शन अपना अनोखा ही प्रभाव दर्शकों के मन पर छोड़ते हैं। प्रातःकाल यहाँ की पैदल यात्रा करके लौटने पर गंगा में स्नान कर लिया जाय तो थकावट का स्मरण भी न रहेगा और मन की प्रफुल्लता के क्या कहने ! हालाँकि धार्मिकता के ख्याल से प्रायः लोग गंगा-स्नान के बाद यहाँ की यात्रा करते हैं।
माया देवी मन्दिर
माया देवी (हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी) का संभवतः ११वीं शताब्दी[16] में बना यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है। इसे देवी सती की नाभि और हृदय के गिरने का स्थान कहा जाता है। यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं।
वैष्णो देवी मन्दिर
हर की पैड़ी से करीब 1 किलोमीटर दूर भीमगोड़ा तक पैदल या ऑटो-रिक्शा से
जाकर वहाँ से ऑटो द्वारा वैष्णो देवी मंदिर तक सुगमतापूर्वक जाया जा सकता
है। यहाँ वैष्णो देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। जम्मू के प्रसिद्ध वैष्णो
देवी की अत्यधिक प्रसिद्धि के कारण इस मंदिर में वैष्णो देवी की गुफा की
अनुकृति का प्रयत्न किया गया है। इस भव्य मंदिर में बाईं ओर से प्रवेश होता
है। पवित्र गुफा को प्राकृतिक रूप देने की चेष्टा की गयी है।
मार्ग की दुर्गमता को बनाये रखने का प्रयत्न हुआ है, हालाँकि गुफा का रास्ता तय करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। हाँ अकेले नहीं जा कर दो-तीनआदमी साथ में जाना चाहिए। बाईं ओर से बढ़ते हुए घुमावदार गुफा का लंबा मार्ग तय करके माता वैष्णो देवी की प्रतिमा तक पहुँचा जाता है। वहीं तीन पिंडियों के दर्शन भी होते हैं। यह मंदिर भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।
पर्व
गहन धार्मिक महत्व के कारण हरिद्वार में वर्ष भर में कई धार्मिक त्यौहार आयोजित होते हैं जिनमें प्रमुख हैं :- कवद मेला, सोमवती अमावस्या मेला, गंगा दशहरा, गुघल मेला जिसमें लगभग २०-२५ लाख लोग भाग लेते हैं।इस के अतिरिक्त यहाँ कुंभ मेला भी आयोजित होता है बार हर बारह वर्षों में मनाया जाता है जब बृहस्पति ग्रह कुम्भ राशिः में प्रवेश करता है। कुंभ मेले के पहले लिखित साक्ष्य चीनी यात्री, हुआन त्सैंग (६०२ - ६६४ ई.) के लेखों में मिलते हैं जो ६२९ ई. में भारत की यात्रा पर आया था।भारतीय शाही राजपत्र (इम्पीरियल गज़टर इंडिया), के अनुसार १८९२ के महाकुम्भ में हैजे का प्रकोप हुआ था जिसके बाद मेला व्यवस्था में तेजी से सुधार किये गए और, 'हरिद्वार सुधार सोसायटी' का गठन किया गया और १९०३ में लगभग ४,००,००० लोगों ने मेले में भाग लिया। १९८० के दशक में हुए एक कुम्भ में हर-की-पौडी के निकट हुई एक भगदड़ में ६०० लोग मारे गए और बीसियों घायल हुए। १९९८ के महा कुंभ मेले में तो ८ करोड़ से भी अधिक तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए यहाँ आये।
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